प्रसिद्ध हिंदी साहित्यकार पद्मभूषण यशपाल की पुण्यतिथि

26 दिसंबर – प्रसिद्ध हिंदी साहित्यकार पद्मभूषण यशपाल की पुण्यतिथि
“लोग मरते हैं, कलम नहीं मरा करती” – यशपाल



यशपाल (जन्मः 3 दिसंबर 1903 - फिरोजपुर, पंजाब तथा मृत्युः 26 दिसंबर 1976 – लखनऊ, उत्तर प्रदेश) का नाम आधुनिक हिंदी साहित्य के कथाकारों में प्रमुख है। ये क्रांतिकारी एवं लेखक दोनों रूपों में जाने जाते है। प्रेमचंद के बाद हिंदी के सुप्रसिद्ध प्रगतिशील कथाकारों में इनका नाम लिया जाता है। अपने विद्यार्थी जीवन से ही यशपाल क्रांतिकारी आन्दोलन से जुड़े, इसके परिणामस्वरुप लम्बी फरारी और जेल में व्यतीत करना पड़ा। इसके बाद इन्होंने साहित्य को अपना जीवन बनाया, जो काम कभी इन्होने बंदूक के माध्यम से किया था, अब वही काम इन्होने लेखनी के माध्यम से जनजागरण का काम शुरु किया। यशपाल को साहित्य एवं शिक्षा के क्षेत्र में भारत सरकार द्वारा सन 1970 में पद्म भूषण से सम्मानित किया गया था। उनकी लेखनी में इतना दम था कि अंग्रेजी सरकार की बुनियादें तक हिल गई थीं। पद्मभूषण से सम्मानित यशपाल भारत के स्वाधीनता संग्राम का हिस्सा रहे। 'मेरी, तेरी, उसकी बात' उपन्यास के लिए साहित्य अकादमी पुरस्कार मिला। विभाजन की त्रासदी को चित्रित करता 'झूठा सच' उनका चर्चित उपन्यास है।


बचपन से क्रांतिकारी
यशपाल का जन्म 3 दिसम्बर, 1903 में पंजाब के फिरोजपुर छावनी में हुआ था। इनके पूर्वज कांगड़ा ज़िले के निवासी थे। इनके पिता हीरालाल व मां प्रेमदेवी ने उन्हें आर्य समाज का तेजस्वी प्रचारक बनाने की दृष्टि से शिक्षा के लिए गुरुकुल कांगड़ी भेज दिया। गुरुकुल के राष्ट्रीय वातावरण में बालक यशपाल के मन में विदेशी शासन के प्रति विरोध की भावना भर गयी थी।
यशपाल ने अपने बचपन में अंग्रेज़ों के आतंक और अमानवीय व्यवहार की अनेक कहानियां सुनी थीं। बरसात या धूप से बचने के लिए कोई हिन्दुस्तानी अंग्रेज़ों के सामने छाता लगा कर नहीं गुज़र सकता था। बड़े शहरों और पहाड़ों पर मुख्य सड़कें उन्हीं के लिए थीं। हिन्दुस्तानी इन सड़कों के नीचे बनी कच्ची सड़क पर चलते थे।
बताया जाता है कि यशपाल जी 1913 में एक गांव भ्रमण कर रहे थे तो उन्होंने देखा कि कुछ औरतें स्नान कर रही थीं, तभी वहां अंग्रेज आ गए, जिनके डर से औरतें आधे-अधूरे वस्त्र पहने ही भागने लगी। यह स्थिति देख कर यशपाल गुस्से से आग बबूला हो उठे थे। अंग्रेजों पर पथराव भी किया। लाहौर के नेशनल कॉलेज में भर्ती हो जाने पर इनका परिचय भगतसिंह और सुखदेव से हुआ। 1921 के बाद तो ये सशस्त्र क्रान्ति के आन्दोलन में सक्रिय भाग लेने लगे। सन 1929 ई। में वायसराय की गाड़ी के नीचे बम रखने के लिए घटनास्थल पर उनको भी जाना पड़ा था। अंग्रेजी हुकूमत ने इसके लिए इन्हें आजीवन कारावास की सजा दी थी।


चंद्रशेखर आज़ाद जैसे गुरुओं की सीख
यशपाल ने अपनी आत्मकथा 'सिंहावलोकन' में लिखा है- भगत सिंह की गिरफ्तारी के बाद, आजाद अपने साथियों के बचाव के लिए पैसे जुटा रहे थे। लेखक और साहित्यकार यशपाल, जो हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपल्बिक असोशिएशन (HSRA) का हिस्सा भी थे, को आजाद ने हिंदू महासभा के वीर सावरकर पास भेजा। सावरकर 50,000 रुपये देने के लिए सहमत तो हो गए लेकिन इस शर्त पर कि आजाद और HSRA के क्रांतिकारियों को जिन्ना की हत्या करनी होगी।
जब आज़ाद को सावरकर के प्रस्ताव के बारे में बताया गया तो उन्होंने इस पर सख्त आपत्ति ज़ाहिर करते हुए कहा, “यह हम लोगों को स्वतंत्रता सेनानी नही भाड़े का हत्यारा समझता है। मना कर दो… नही चाहिये इसका पैसा।"


स्वतंत्रता संग्राम में भागीदारी
चन्द्रशेखर आज़ाद के शहीद होने के बाद यशपाल हिन्दुस्तानी समाजवादी प्रजातंत्र के कमाण्डर नियुक्त हुए। इसी समय दिल्ली और लाहौर में दिल्ली तथा लाहौर षड्यंत्र के मुक़दमे चल रहे थे। पर ये फ़रार थे और पुलिस के हाथ में नहीं आ पाये थे। 1932 में पुलिस से मुठभेड़ हो जाने पर गोलियों का भरपूर आदान-प्रदान करने के दौरान ये गिरफ़्तार हो गये। उन्हें चौदह वर्ष की सख़्त सज़ा हुई।
1938 में संयुक्त प्रान्त में जब कांग्रेस मंत्रिमण्डल बना तो अन्य राजनीतिक बन्दियों के साथ इनको भी मुक्त कर दिया गया। तब यह लखनऊ में कैद थे लेकिन अंग्रेजी सरकार ने इन्हें इस शर्त पर छोड़ा थि कि वह अब पंजाब नहीं जायेंगे। जिसके बाद से वह लखनऊ में ही बस गए। इस दौरान इन्होंने विप्लव पत्रिका निकाली जो काफ़ी लोकप्रिय हुई। इसमें राष्ट्रीय भावनाओं से जुड़े लेख निकाले जाते थे। 1941 में इनके गिरफ़्तार हो जाने पर विप्लव बन्द हो गया, किन्तु अपनी विचारधारा के प्रचार में इन्होंने विप्लव का भरपूर प्रयोग किया। विभिन्न ज़िलों में उन्हें पढ़ने-लिखने का जो अवकाश मिला था, उसमें उन्होंने देश-विदेश के बहुत से लेखकों का मनोयोगपूर्ण अध्ययन किया। पिंजरे की उड़ान और वो दुनिया की कहानियां प्राय: जेल में ही लिखी।



लेखक बनने की कहानी
यशपाल के लेखक बनने की कहानी बड़ी ही दिलचस्प है। बात उस समय है कि जब उन्हें अंग्रेजों ने जेल में बंद कर दिया था। ठीक उसी समय प्रकाशवती कपूर महिला क्रांत्रिकारी को भी उसी जेल में बंद किया गया जहाँ यशपाल थे। दोनों में प्रेम हो गया। यशपाल की सहमति लिखित रूप में प्राप्त कर बरेली जेल को अदालत के रूप में परिणत कर डिप्टी कमिशनर मि. पैडले और गवाहों की उपस्थिति में यशपाल और प्रकाशवती का विवाह संपन्न हुआ, उस समय यशपाल की माँ भी उपस्थिति थीं जिनका आशीर्वाद दोनों को प्राप्त हुआ। अब प्रकाशवती कपूर प्रकाशवती पाल हो गयी। जेल में विवाह के कारण लोगों को कौतूहल और आश्चर्य हो रहा था किन्तु आनंद के उन क्षणों में मिठाई बाँटी गई। वहाँ से पुनः वे अपनी-अपनी जेलों में वापस गए। जेल से छूटने के बाद ही उन दोनों का मिलन हुआ। चंद्रशेखर आजाद की प्रेरणा से ही प्रकाशवती का क्रांति-स्वप्न साकार हुआ। बाद में उन्होंने अपना शिक्षा- क्रम जारी रखते हुए कुछ दिन बनारस हिन्दू विश्व-विद्यालय में भी अध्ययन किया। यह सत्य है कि प्रकाशवती को क्रांतिकारी बनाने वाले यशपाल थे तो यह भी निर्विवाद सत्य है कि यशपाल को लेखक बनाने में प्रकाशवती का योगदान है और वे सफल लेखक बन सके।



साहित्यिक रचनाएँ
यशपाल के लेखन की प्रमुख विधा उपन्यास है, लेकिन अपने लेखन की शुरूआत उन्होने कहानियों से ही की। उनकी कहानियाँ अपने समय की राजनीति से उस रूप में आक्रांत नहीं हैं, जैसे उनके उपन्यास। नई कहानी के दौर में स्त्री के देह और मन के कृत्रिम विभाजन के विरुद्ध एक संपूर्ण स्त्री की जिस छवि पर जोर दिया गया, उसकी वास्तविक शुरूआत यशपाल से ही होती है। आज की कहानी के सोच की जो दिशा है, उसमें यशपाल की कितनी ही कहानियाँ बतौर खाद इस्तेमाल हुई है। वर्तमान और आगत कथा-परिदृश्य की संभावनाओं की दृष्टि से उनकी सार्थकता असंदिग्ध है। उनके कहानी-संग्रहों में पिंजरे की उड़ान, ज्ञानदान, भस्मावृत्त चिनगारी, फूलों का कुर्ता, धर्मयुद्ध, तुमने क्यों कहा था मैं सुन्दर हूँ और उत्तमी की माँ प्रमुख हैं। यशपाल की वैचारिक यात्रा में यह सूत्र शुरू से अंत तक सक्रिय दिखाई देता है कि जनता का व्यापक सहयोग और सक्रिय भागीदारी ही किसी राष्ट्र के निर्माण और विकास के मुख्य कारक हैं। यशपाल हर जगह जनता के व्यापक हितों के समर्थक और संरक्षक लेखक हैं। अपनी पत्रकारिता और लेखन-कर्म को जब यशपाल 'बुलेट की जगह बुलेटिन' के रूप में परिभाषित करते हैं तो एक तरह से वे अपने रचनात्मक सरोकारों पर ही टिप्पणी कर रहे होते हैं। ऐसे दुर्धर्ष लेखक के प्रतिनिधि रचनाकर्म का यह संचयन उसे संपूर्णता में जानने-समझने के लिए प्रेरित करेगा, ऐसा हमारा विश्वास है। वर्षों 'विप्लव' पत्र का संपादन-संचालन। समाज के शोषित, उत्पीड़ित तथा सामाजिक बदलाव के लिए संघर्षरत व्यक्तियों के प्रति रचनाओं में गहरी आत्मीयता। धार्मिक ढोंग और समाज की झूठी नैतिकताओं पर करारी चोट। अनेक रचनाओं के देशी-विदेशी भाषाओं में अनुवाद। 'मेरी तेरी उसकी बात' नामक उपन्यास पर साहित्य अकादमी पुरस्कार।


वर्तमान में यशपाल की रचनाओं की प्रासंगिकता
झूठा सच यशपाल का महत्वपूर्ण उपन्यास है , जो दो भागों में विभाजित है पहला भाग वतन और देश (1958 )और दूसरा भाग देश का भविष्य (1960 ) देश विभाजन की पृष्टभूमि पर लिखा गया एक शानदार उपन्यास है इसे आप पढ़कर आनंद ले सकते है ।झूठा सच' यशपाल जी के उपन्यासों में सर्वश्रेष्ठ है। इस उपन्यास की गिनती हिन्दी के नये पुराने श्रेष्ठ उपन्यासों में होगी-यह निश्चित है। यह उपन्यास हमारे सामाजिक जीवन का एक विशद् चित्र उपस्थित करता है। इस उपन्यास में यथेष्ट करुणा है, भयानक और वीभत्स दृश्यों की कोई कमी नहीं। श्रंगार रस को यथासम्भव मूल कथा-वस्तु की सीमाओं में बाँध कर रखा गया है। हास्य और व्यंग्य ने कथा को रोचक बनाया है और उपन्यासकार के उद्देश्य को निखारा है।
'झूठा सच' यशपाल जी का एक ऐतिहासिक, रोचक एवं मार्मिक उपन्यास है। यह देश के विभाजन और उसके बाद की रोंगटे खड़े कर देने वाली घटनाओं घटनाओं पर आधारित है। उपन्यास की मुख्य दृश्यावली लाहौर नगर है। जिस आधार पर विभाजन हो रहा था, उसके मद्देनजर यह माना जा रहा था कि लाहौर भारत में रहेगा। लेकिन अन्तिम क्षणों में बन्दरबांट पाकिस्तान के पक्ष में हुई थी। लाहौर तुलनात्मक दृष्टि से देश के अन्य नगरों से समृद्ध है। वहां के नागरिक बेफिक्र नजर आते हैं। पंजाब विश्वविद्यालय के छात्र मौज मस्ती करते हैं । किसी तरह का मन मुटाव नहीं । हाँ, धीरे धीरे लोगों के मन में शंकाएं घर करती जा रही हैं। संघर्ष की स्थिति से निपटने के उपाय सोचे जा रहे हैं। पुलिस का व्यवहार पक्षपाती हो चला है। अब लाहौर पाकिस्तान को मिल गया है। पुलिस सड़कों पर, गलियों में घोषणा कर रही है, 'सब हिन्दू दस मिनट में घरों को खाली कर दें। उसके बाद घर सील कर दिये जाएँगे। जो अन्दर रहा वह अन्दर ही रह जाएगा।' इस प्रकार बाहर निकाल कर सबको शहर से बाहर शिविर में पहुँचा दिया गया है। अब विभाजन पूरा हो गया है । अब उपन्यास का घटना स्थल भी सारा देश बन गया है। उपन्यास एक बृहद् रचना है । इसमें पात्रों की भरमार है। प्रमुख नारी पात्र पंजाब विश्वविद्यालय में स्नातक की छात्रा है । वह अपने परिवार से बिछुड़ जाती है और नारी जाति के प्रति हुए अत्याचारों की साक्षी बनती है ।
एक स्थान पर वह नारी की लज्जा का वर्णन करते हैं। यह वर्णन कालजयी है। वे लिखते हैं-"देखने वालों की नजरें स्त्री होने के नाते उनको सिखाये गए और खुद स्त्रियों द्वारा समावेशित किये गए 'लज्जा' के भाव पर चोट करती है, अर्थात उन्हें लज्जित करती है। भाषाई अभिव्यक्ति जैसे कि 'पलकें मूंदें' अथवा 'घुटनों पर सिर दबाये बैठी' उनकी 'लज्जा' को भाषा के स्तर पर बयां करती है, जहाँ ये स्त्रियां अपने चेहरे को ढंकने की कोशिश कर रही हैं। डर और गुस्सा जैसे अन्य भावों की तरह 'लज्जा' एक ऐसा भाव है जिसकी शारीरिक अभिव्यक्ति होती है। 'लज्जा' की शारीरिक अभिव्यक्ति मूलतः ऐसे होती है: “नीची नज़रें, नज़रें चुराना, चेहरा या सिर का नीचे की तरफ होना, एकाएक गिरना अथवा शरीर का जकड़ जाना, होंठ काटना, झेंपना, चेहरे को छुपाना (जैसे कि हाथ से) और शरीर को छुपाने की कोशिश इत्यादि।"
हिंदी साहित्य के यश हैं 'यशपाल'


यशपाल का मानना था कि सुंदर पदार्थ से भिन्न सौंदर्य का कोई अस्तित्व नहीं होता। सौंदर्य का प्रयोजन तो मानसिक संतोष देना है। इसी प्रकार जीवन से पृथक कला का कोई अस्तित्व नहीं हो सकता। यशपाल हिंदी साहित्य में वर्ग-संघर्ष मिटाने वाले हस्ताक्षर के रूप में सदा अमर रहेंगे-
“लेखनी का यश कभी मर नहीं सकता, हर कोई यशपाल बन नहीं सकता।
हाँ सच है 'उरतृप्त' लोग मरते हैं, लेकिन कलम का यश मरा नहीं करता।।“



डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा उरतृप्त
सरकारी पाठ्यपुस्तक लेखक, तेलंगाना सरकार